एक ऐसी भाषा जो आजादी से पहले राजस्थान, मालवा और उमरकोट की राजभाषा हुआ करती थी । साहित्यिक तौर पर जिस डिंगल ने दुनिया में डंका बजाया आज वो अपने ही मुल्क में पहचान के लिए तरस रही हैं ।
''आभलिया तूं रूप सरूप, बादळ बिन बरसे नहीं
साळा घणां सपूत, भीड़ भाईयों बिना भागे नहीं ''
उपर जो आपने पढा हैं उसका मतलब है कि, आसमान कितना भी खूबसूरत हो, बादल के बिना बारिश नहीं होती और साले कितने भी सपूत हो लेकिन घर में भीड़, घर भरा और खुशहाल तभी लगेगा जब आंगन में अपने भाई खड़े हो । ठीक उसी तरह, व्यवसायिक नजरिए से अंग्रेजी समेत तमाम भाषाएं कितनी भी समृद्ध नजर आती हो लेकिन अपनत्व और आनंद की परम अनुभूति तभी होती है । आपको बता दें कि, राजस्थानी भाषा आजादी से पहले राजस्थान, मालवा और उमरकोट जो कि आजकल पाकिस्तान हैं की राजभाषा थी । शायद आपको पता नहीं होगा मगर राजस्थानी भाषा की करीब दर्जनभर बोलियां है जैसे कि— मारवाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, ढ़ूंढ़ाड़ी, वागड़ी, हाड़ौती, ब्रज, माळवी, भीली, पहाड़ी और खानाबदोषी बोलियां आदि । जबकि राजस्थान की साहित्यिक लेखनी डिंगली और पिंगल दो भाषाओं में होता है ।
जानिए, डिंगल और पिंगल में अंतर —
बता दें कि, आजाद भारत के लिहाज से समझें तो उमरकोट और पश्चिमी राजस्थान के क्षेत्र में जिस भाषा में साहित्यिक रचनाएं होती थी उसे डिंगल कहते थे । इसके आगे आपको बता दें कि, डिंगल भाषा का अधिकांश साहित्य चारण कवियों ने लिखा हैं । इसके अलावा पीथल के नाम से प्रसिद्ध पृथ्वीराज राठौड़ ने भी वैली कृष्ण रुखमणी री, दसम भागवत रा दूहा समेत तमाम रचनाएं भी डिंगल भाषा में लिखी हैं । इसके साथ ही बता दें कि, इस भाषा का पहली बार प्रयोग बांकीदास के द्वारा विक्रम संवत 1871 में किया गया था ।
जब हम पूर्वी राजस्थान की ओर आते है. और जहां राजस्थानी भाषा और ब्रज भाषा आपस में मिल जाती है. उस क्षेत्र की साहित्यिक रचनाएं जिस भाषा में हुई उसे “पिंगल” कहा गया । इसमें सबसे ज्यादा लेखन भाटों ने किया है । आजादी से पहले हमारे यहां जागीदारी से लेकर रियासत तक, हर स्तर पर लेखक और कवियों का सम्मान होता था । जागीरदार, सामंत या उस रियासत का राजा हुआ करते थे । जिन नेताओं पर राजस्थानी भाषा को संवैधानिक सम्मान दिलाने की जिम्मेदारी थी. उन्हौने न तो इसे खाने-कमाने की भाषा बनने दिया और न ही ये कभी सियासत और सत्ता की भाषा बन पाई ।
राजस्थानी भाषा को मान्यता का संघर्ष —
राजस्थानी भाषा को मान्यता की मांग सबसे पहले 1936 में उठाई गई थी, जब देश आजाद हुआ तो 1956 में राज्य विधानसभा में ये मांग उठी । राजस्थानी भाषा को सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे तमाम संगठनों और लोगों ने वक्त वक्त पर सड़क से लेकर सदन तक इस आवाज को उठाया और आखिरकार साल 2003 में पहली बार राजस्थान सरकार ने राज्य विधानसभा से एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा । जिसके बाद कमेटी ने भोजपुरी के साथ राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता देने के लिए पूरी तरह से पात्र बताया ।