जयपुर न्यूज डेस्क: जयपुर में डॉक्टर अब उस खामोश खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं, जो मोबाइल की चमकदार स्क्रीन के पीछे छिपा है। दुनिया के कई देशों में सोशल मीडिया से बच्चों को दूर रखने की मांग तेज हो रही है और ऑस्ट्रेलिया तो 16 साल से कम उम्र के बच्चों पर सोशल मीडिया बैन तक कर चुका है। भारत में भी यही चिंता बढ़ रही है—खासतौर पर राजस्थान में, जहां छोटे बच्चों का मानसिक विकास मोबाइल स्क्रीन टाइम की वजह से गंभीर रूप से प्रभावित हो रहा है। सवाई मानसिंह अस्पताल के न्यूरोलॉजी विभाग में अब 3–7 साल के ऐसे बच्चे तेजी से पहुंच रहे हैं, जिनमें ऑटिज्म जैसे लक्षण, घबराहट, चिड़चिड़ापन और भाषा समझने की दिक्कतें दिखाई दे रही हैं। डॉक्टरों का कहना है कि इसका मूल कारण सिर्फ एक है—स्क्रीन का ओवरडोज़।
विशेषज्ञ बताते हैं कि यह उम्र बच्चों के दिमागी विकास की नींव होती है। यही समय होता है जब वे चेहरों को पहचानना, भाव समझना और आसपास की दुनिया से जुड़ना सीखते हैं। लेकिन मोबाइल स्क्रीन उनकी इस नैसर्गिक सीखने की प्रक्रिया को रोक देती है। डॉक्टर दिनेश खंडेलवाल का कहना है कि आज हालत यह है कि 8–9 महीने के शिशुओं को भी मोबाइल देखने की आदत लग रही है। माता-पिता उन्हें शांत कराने के लिए फोन थमा देते हैं, लेकिन यही आदत आगे चलकर दिमाग़ की ग्रोथ को रोक देती है। परिणामस्वरूप बच्चे भाषा सीखने में पिछड़ जाते हैं, सामाजिक गतिविधियों में शामिल नहीं हो पाते और ‘डिजिटल बबल’ में कैद होने लगते हैं।
6–14 वर्ष के बच्चों की स्थिति और भी चिंताजनक है। गेम्स, रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स और लेट-नाइट स्क्रीन टाइम उनकी नींद छीन रहे हैं। मोबाइल की ब्लू लाइट मेलाटोनिन को दबा देती है, जो नींद लाने वाला हार्मोन है। चिकित्सा रिपोर्टें बताती हैं कि रात में सिर्फ एक घंटे मोबाइल देखने से नींद 10–15 मिनट घट जाती है। लगातार देर रात स्क्रीन देखने से बच्चों में चिड़चिड़ापन, ध्यान भटकना, पैनिक अटैक और एंग्जायटी जैसे लक्षण तेजी से बढ़ रहे हैं। नींद पूरी न होने के कारण वे सुबह सुस्त रहते हैं, क्लास में ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते और पढ़ाई-खेल दोनों में पिछड़ने लगते हैं।
विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि ऑटिज्म का रिश्ता बच्चे के शुरुआती दिमागी विकास से गहराई से जुड़ा है। जब बच्चा कम उम्र में आसपास की चीजों में रुचि नहीं लेता, आंख से आंख मिलाकर बातचीत नहीं करता, इमोशंस की पहचान नहीं सीखता और दूसरे बच्चों के साथ खेलना या सवाल पूछना बंद करता है—तो दिमाग का वह हिस्सा कमजोर होने लगता है जो सामाजिक व्यवहार और संवाद क्षमता को नियंत्रित करता है। मोबाइल स्क्रीन इस महत्वपूर्ण विकास चरण को रोक देती है, जिससे बच्चा धीरे-धीरे ऑटिज्म स्पेक्ट्रम के लक्षण दिखाने लगता है। सिर्फ बच्चे ही नहीं—मोबाइल के प्रभाव से वयस्कों में भी एंग्जायटी, ओवरथिंकिंग, अनिद्रा और पैनिक अटैक तेजी से बढ़े हैं। भविष्य को लेकर डॉक्टरों की चेतावनी स्पष्ट है—आज मोबाइल बच्चों को चुप करा रहा है, लेकिन कल यही मोबाइल उनके मानसिक स्वास्थ्य को चोट पहुंचाएगा।