क्रेज़ी रिव्यू: सोहम शाह स्टारर फिल्म का है जबरदस्त आइडिया, लेकिन एक्सीक्यूशन में रह गई कमी
                                                
                                                
                                                
                                                    
                                                
                                                कॉन्सेप्ट अच्छा था, लेकिन एक्सीक्यूशन उतनादमदार नहीं रहा, जिससे फिल्म एक थ्रिलिंग एक्सपीरियंस देने की बजाय लंबी और बेजान सी लगने लगती है। अगर आप एक हाई-ऑक्टेन, सीट सेचिपकाने वाला थ्रिलर देखने की उम्मीद कर रहे हैं, तो ये फिल्म आपको थोड़ा निराश कर सकती है।
                                             
											
                                              
                                                फिल्म: क्रेज़ी
डायरेक्टर: गिरीश कोहली
कास्ट: सोहम शाह, उन्नति सुराना
 
जब क्रेज़ी का ट्रेलर रिलीज़ हुआ था, तब ऑडियंस के बीच जबरदस्त एक्साइटमेंट देखने को मिली। तुम्बाड जैसी दिल दहला देने वाली फिल्म केबाद, सोहम शाह की इस नई फिल्म को लेकर लोगों की उम्मीदें और भी बढ़ गई थीं। एक हाई-स्टेक्स थ्रिलर, जो पूरी तरह से एक कार के अंदर सेट है—ये कॉन्सेप्ट सुनते ही लगा था कि फिल्म एक जबरदस्त, रोमांचक एक्सपीरियंस देने वाली है। लेकिन अफसोस, क्रेज़ी उन उम्मीदों पर पूरी तरह खरीनहीं उतर पाती। फिल्म जिस तरह का असर छोड़ने का वादा करती है, वो स्क्रीन पर पूरी तरह उभर नहीं पाता। तुम्बाड जैसी जादूई सिनेमाई दुनिया कोदेखने के बाद, ये फिल्म कुछ अधूरी-सी महसूस होती है।
 
क्रेज़ी को गिरीश कोहली ने डायरेक्ट किया है और इसकी कहानी डॉक्टर अभिमन्यु (सोहम शाह) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक सक्सेसफुल लेकिनघमंडी डॉक्टर है। उसकी जिंदगी तब उलट-पलट हो जाती है जब उसकी बेटी का किडनैप हो जाता है और फिरौती की रकम वही होती है, जो वोमेडिकल नेग्लिजेंस केस निपटाने के लिए देने वाला था। ये प्लॉट सुनने में जितना थ्रिलिंग लगता है, उतना स्क्रीन पर देखने में नहीं लगता। फिल्म कीशुरुआत जिस रफ्तार से होती है, वो धीरे-धीरे इतनी सुस्त हो जाती है कि कहानी अपना असर ही खो देती है। हाई-स्टेक्स थ्रिलर होने के बावजूद, इसमेंवो घबराहट, बेचैनी और टेंशन महसूस नहीं होती, जो ऐसे प्लॉट से उम्मीद की जाती है। खासकर पहले हाफ में, क्रेज़ी इमोशनल कनेक्ट और सस्पेंसपैदा करने में पूरी तरह फेल होती है, जिससे ऑडियंस जुड़ ही नहीं पाती।
 
फिल्म कुछ टेक्निकल पहलुओं में जरूर दमदार है, खासकर इसकी सिनेमैटोग्राफी। क्रेज़ी का पूरा विजुअल स्टाइल काफी प्रभावी है, लेकिन यहीइसकी कमजोरी भी बन जाता है। पूरी फिल्म लगभग डॉक्टर अभिमन्यु की कार के अंदर शूट की गई है, जिससे फिल्ममेकर्स ने क्लॉस्ट्रोफोबिक और टेंसमाहौल बनाने में कामयाबी तो पाई, लेकिन यही अप्रोच कई बार कहानी को सीमित भी कर देता है। जहां सपोर्टिंग कास्ट की आवाज़ें कहानी को औरगहराई दे सकती थीं, वहीं उन्हें सही से इस्तेमाल नहीं किया गया, जिससे पूरी फिल्म में एक खालीपन सा महसूस होता है। क्रेज़ी देखने में स्टाइलिशजरूर लगती है, लेकिन इमोशन और गहराई की कमी इसे कहीं न कहीं अधूरा छोड़ देती है।
 
सोहम शाह की परफॉर्मेंस, जो इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत हो सकती थी, वो काफी अस्थिर नजर आती है। उन्होंने अपने किरदार के इमोशनललेयर्स दिखाने की कोशिश तो की है, लेकिन कई जगह उनकी एक्टिंग जरूरत से ज्यादा ओवर लगती है और कहीं-कहीं अनरियलिस्टिक भी महसूसहोती है। पूरी फिल्म में वो अकेले स्क्रीन पर मौजूद हैं, लेकिन उनकी मौजूदगी कहानी को उस तरह थाम नहीं पाती, जितनी उम्मीद थी।खासतौर परउनके किरदार के ट्रांसफॉर्मेशन वाले सीन्स में वो गहराई नहीं दिखती, जो ऑडियंस को झकझोर सके। फिनाले तक आते-आते फिल्म मेलोड्रामा में फंसजाती है, जिससे जो इमोशनल पंच देना चाहिए था, वो कमजोर पड़ जाता है। क्रेज़ी का आखिरी हिस्सा इंटेंस होने के बजाय बनावटी लगने लगता है,जिससे इसकी पूरी इमोशनल अपील और भी फीकी पड़ जाती है।
 
फिल्म की रफ्तार भी एक बड़ी दिक्कत बन जाती है। खासकर दूसरे हाफ में जब कोई बड़ा डेवलपमेंट नहीं होता, तो लगता है कि कहानी बस एक हीजगह घूम रही है। जो ट्विस्ट और खुलासे बड़े असरदार होने चाहिए थे, वो उतने दमदार नहीं लगते, जिससे पूरी बिल्डअप का मकसद ही फीका पड़जाता है। क्लाइमेक्स जहां एक बड़ा इमोशनल पंच देने की कोशिश करता है, वहीं वो उम्मीद के मुताबिक असर नहीं छोड़ पाता। जिस शॉक फैक्टर सेऑडियंस को हिलाना चाहिए था, वो इतना हल्का लगता है कि फिनाले का इम्पैक्ट अधूरा सा महसूस होता है। क्रेज़ी आखिर में जिस ऊंचाई तकपहुंचना चाहती थी, वहां तक जाते-जाते लड़खड़ा जाती है।
 
क्रेज़ी में कुछ बढ़िया चीजें डालने की कोशिश की गई है, जैसे रिंगटोन की आवाज़ में छिपा मतलब या घड़ी की लगातार टिक-टिक, जो टेंशन बढ़ानेका काम करती है। लेकिन ये छोटे-छोटे आइडियाज भी फिल्म को उस लेवल तक नहीं ले जा पाते, जहां ये सच में असर छोड़ सके।फिल्म टेक्निकलचीजों पर ज्यादा भरोसा करती है, लेकिन दिक्कत ये है कि इन सबके बावजूद कहानी में वो दम नहीं दिखता। जब स्क्रिप्ट ही कमज़ोर हो, तो अच्छीसिनेमैटोग्राफी और बैकग्राउंड म्यूजिक भी फिल्म को बचा नहीं पाते।
 
आखिर में, क्रेज़ी वो एंगेजमेंट और एक्साइटमेंट नहीं दे पाती, जो तुम्बाड में देखने को मिली थी। कॉन्सेप्ट अच्छा था, लेकिन एक्सीक्यूशन उतनादमदार नहीं रहा, जिससे फिल्म एक थ्रिलिंग एक्सपीरियंस देने की बजाय लंबी और बेजान सी लगने लगती है। अगर आप एक हाई-ऑक्टेन, सीट सेचिपकाने वाला थ्रिलर देखने की उम्मीद कर रहे हैं, तो ये फिल्म आपको थोड़ा निराश कर सकती है। बड़ी सोच और इरादे के बावजूद, क्रेज़ी अपनी हीहाइप के दबाव में आ जाती है और वो थ्रिलिंग, इमर्सिव स्टोरी नहीं दे पाती, जिसका वादा किया गया था।